
बिहार अब सिर्फ एक राज्य नहीं रहा—यह एक बर्बरता का भूगोल बनता जा रहा है, जहां मासूमों की चीखें राजनीतिक भाषणों में गुम हो जाती हैं। मुजफ्फरपुर में कथित बलात्कार की घटना ने फिर साबित कर दिया कि यहां बेटियों की सुरक्षा कोई “इमरजेंसी” मुद्दा नहीं, बल्कि एक रूटीन न्यूज आइटम बन चुकी है।
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बेटियों की चीखों में दब चुकी है व्यवस्था की आत्मा
हर दिन कहीं ना कहीं से बलात्कार, छेड़खानी या यौन हिंसा की ख़बर आती है। अब सवाल यह नहीं कि “कहाँ हुआ?” बल्कि यह कि “आज कहाँ नहीं हुआ?” जब शोर व्यवस्था के खिलाफ उठता है, तो सबसे पहले पुलिस की चुप्पी और सरकार की सफाई सुनाई देती है।
तेजस्वी का तगड़ा हमला: “ये जंगलराज नहीं, बलात्कार राज है”
तेजस्वी यादव ने बिहार सरकार पर सीधा हमला बोला—“राज्य में एक भी ऐसा जिला नहीं बचा जहां बलात्कार ना हुआ हो। मुख्यमंत्री और डिप्टी सीएम को सिर्फ कुर्सी से मतलब है।” ये बयान राजनीति नहीं, जनता की हकीकत लगने लगा है।
नाबालिग से कथित बलात्कार और बर्बरता के बाद पुलिस का मीडिया से बचना, परिजनों का दर-दर भटकना, और प्रशासन का “सब नियंत्रण में है” वाला रवैया—ये सब कुछ दर्शाता है कि संवेदनशीलता अब सिस्टम की शब्दावली में नहीं बची।
क्या बिहार को अब चुनाव नहीं, इलाज चाहिए?
तेजस्वी के आरोप सिर्फ विरोध का भाषण नहीं, बल्कि हर उस परिवार की आवाज़ हैं जो डर के साए में जी रहा है। अब राजनीति नहीं, प्रशासनिक इलाज की ज़रूरत है। सवाल सिर्फ बेटियों का नहीं, बिहार की आत्मा का है।
सड़कों पर स्पीड लिमिट है, पर रेप केस में कोई ब्रेक नहीं। यह बिहार है, जहां फास्ट ट्रैक कोर्ट से ज़्यादा तेज़ बलात्कारी दौड़ते हैं—और सरकार उन्हें पकड़ने की बजाय आंकड़ों से लुका-छुपी खेलती है।
बिहार की सड़कों पर अब चीखें गूंजती हैं, और सिस्टम सोता है। सवाल उठ रहा है कि क्या बेटियों को सुरक्षित रखने के लिए अब सिर्फ चुनावी भाषण ही पर्याप्त हैं? या कभी कोई सुनवाई भी होगी?
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